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पुरी में आज से भगवान जगन्नाथ की विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा की शुरुआत हो रही है। रात 10:04 बजे जगन्नाथ जी, बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ निकलेंगे। अगले दिन रात 7.09 बजे वे अपनी मौसी के घर, यानी गुंडिचा मंदिर जाएंगे और 9 दिनों तक वहीं रुकेंगे। इसके बाद वापस जगन्नाथ मंदिर लौट आएंगे।

यात्रा के लिए तीन भव्य रथ बनाए गए हैं। पहले रथ में भगवान जगन्नाथ, दूसरे रथ में बलराम और तीसरे रथ में सुभद्रा सवार होंगी।

रथ बनाने के लिए खास तरह के 884 पेड़ों की लकड़ियों का इस्तेमाल होता है। पहला कट सोने की कुल्हाड़ी से किया जाता है। रथ बनाने वाले दिन में एक बार ही सादा भोजन करते हैं। वजह इस मंदिर की परंपरा अनोखी है ही इतनी। पढ़िए ये खास ग्राउंड रिपोर्ट…

रथ यात्रा के लिए तीन रथ बनते हैं। इसके लिए महाराणा कम्युनिटी (कारपेंटर्स) के लोग ही सबसे पहले सोने की कुल्हाड़ी से लकड़ी पर प्रहार करते हैं।

रथ यात्रा के लिए तीन रथ बनते हैं। इसके लिए महाराणा कम्युनिटी (कारपेंटर्स) के लोग ही सबसे पहले सोने की कुल्हाड़ी से लकड़ी पर प्रहार करते हैं।

शाम पांच बजे का वक्त। जगह ओडिशा के पुरी का जगन्नाथ मंदिर। कानों में समुद्र की लहरों की गूंज और सन-सन करती हवाएं। सैकड़ों की संख्या में भक्त मंदिर के बाहर मौजूद हैं। हर किसी की नजरें आसमान पर टिकी हैं। मैं सोचती हूं कि सब ऊपर की तरफ क्यों देख रहे हैं?

तभी धोती पहने दो नौजवान आते हैं। उनके पीठ पर अलग-अलग तरह के झंडे बंधे हैं। वे मंदिर की दीवार की तरफ पीठ करके खड़े हो जाते हैं। जय जगन्नाथ का जयकारा आसमान में गूंजने लगता है।

मैं कुछ समझ पाती, दोनों युवा पीठ की तरफ से ही तेजी से मंदिर के ऊपर चढ़ने लगते हैं। चंद मिनटों में ही वे ऊपर गुंबद के पास पहुंच जाते हैं। इसके बाद वे आगे की तरफ मुड़ जाते हैं। हाथ के सहारे ऊपर चढ़ने लगते हैं। कुछ मिनटों में वे मंदिर के शिखर पर पहुंच जाते हैं।

मैं अंदर से थोड़ी डरी हूं। दिल तेजी से धड़क रहा है कि कहीं इनका पांव फिसल गया तो क्या होगा। पहली बार मैं ऐसा नजारा देख रही हूं। ऐसा लग रहा है आंखों में कोई एनिमेटेड फिल्म का सीन चल रहा हो।

सबसे पहले वे पुराने ध्वज को उतारते हैं। फिर नया ध्वज लगाते हैं। इसके बाद ऊपर से ही मशाल लहराते हैं। नीचे मौजूद लोग दूर से ही मशाल की बल्लियों की आरती लेते हैं।

हर दिन इसी तरह मंदिर के शिखर पर चढ़कर ध्वज बदला जाता है। एक दिन भी इसे टाला नहीं जा सकता है।

हर दिन इसी तरह मंदिर के शिखर पर चढ़कर ध्वज बदला जाता है। एक दिन भी इसे टाला नहीं जा सकता है।

मुझे बताया गया कि हर दिन मंदिर का ध्वज ऐसे ही बदला जाता है। इसमें एक दिन भी चूक नहीं होती है। चाहे बारिश आए या तूफान। मान्यता है कि अगर एक दिन ध्वज नहीं बदला गया तो 18 साल के लिए मंदिर बंद हो जाएगा।

अब शाम ढल चुकी है। मैं मंदिर के बाहर इधर-उधर घूमती हूं। यहां हर गली में पुजारियों के घर हैं। कुछ पुजारियों से मैंने मंदिर के बारे में पूछा, भगवान जगन्नाथ के बारे में पूछा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। उनका कहना था कि भगवान की निजी बातें बताने पर वे नाराज हो जाते हैं। फिर उन्होंने कहा कि सुबह आना मंदिर में घूम लेना।

अगले दिन सुबह मैं फिर से मंदिर पहुंचती हूं। मंदिर के मुख्य द्वार से पहले बाहर एक स्तंभ है, जिसके चारों ओर परात रखी हैं, जिसमें लोग पैसे चढ़ा रहे हैं। फिर एक द्वार है, जिसके दरवाजों पर सिंह बने हुए हैं। इसे सिंह द्वार कहा जाता है।

सुबह 5 बजे दरवाजा खुलता है। पुजारी लाइट जलाते हैं। आरती होती है। फिर सब आगे बढ़ते हैं। 6-7 फीट चौड़ी 14 सीढ़ियां हैं। यहां से भक्त लेट-लेटकर आगे बढ़ रहे हैं। मान्यता ये कि ऐसा करने से नुकसान पहुंचाने वाले ग्रहों से मुक्ति मिलती है।

कुछ इस तरह भगवान जगन्नाथ को रथ पर विराजमान किया जाता है। इस दिन उन्हें खिचड़ी खिलाई जाती है।

कुछ इस तरह भगवान जगन्नाथ को रथ पर विराजमान किया जाता है। इस दिन उन्हें खिचड़ी खिलाई जाती है।

गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलराम और बहन सुभद्रा की मूर्तियां हैं। सभी मूर्तियां लकड़ी की बनी हैं। यहां पूजा के विधि-विधान भी खास हैं। भगवान को नहलाना हो, वस्त्र पहनाना हो, सब्जी काटनी हो, पानी लाना हो, सामान समेटना हो या भोग लगाना हो, हर काम के लिए एक-एक व्यक्ति है। वही हर दिन उस काम को करेगा, कोई दूसरा नहीं।

मंदिर के पुजारी सूर्यनारायण रथ शर्मा बताते है, ‘सुबह भगवान उठने के बाद दंत-मंजन करते हैं। उन्हें लकड़ी और कपूर दिया जाता है। फिर वे बिंब स्नान करते हैं। यानी सात हाथ की दूरी से शीशे में अपना बिंब देखते हैं। वह शीशा सूर्य का प्रतीक होता है और मंत्रों से स्थापित किया जाता है।

साल में एक बार बरसात के मौसम में भगवान प्रत्यक्ष स्नान भी करते हैं। यानी वे पानी से नहाते हैं। ऐसी मान्यता है कि जब वे पानी से नहाते हैं, तो उन्हें बुखार आ जाता है। इसके बाद 15 दिन तक वे आराम करते हैं। इस दौरान उनका दर्शन नहीं होता है। पूजा की विधि भी बदल जाती है। उन्हें सिर्फ सफेद फूल चढ़ाया जाता है। सफेद कपड़े पहनाए जाते हैं।

भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम। इन तीनों की मूर्तियां मंदिर में मौजूद हैं।

भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलराम। इन तीनों की मूर्तियां मंदिर में मौजूद हैं।

इसके बाद फुलरी के तेल से उनकी मालिश होती है। इलाज के लिए राजवैद्य को बुलाया जाता है। वे आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां देते हैं। इसको लेकर पुरी में एक कहावत भी है कि एलोपैथ से दूर रहो, क्योंकि जगन्नाथ भी आयुर्वेद लेते हैं।

स्नान के बाद भगवान का श्रृंगार होता है। भोग लगता है। सालधूप पूजा होती है। इसके बाद दोबारा श्रृंगार किया जाता है। यही प्रक्रिया दोपहर और शाम में भी दोहराई जाती है। शाम में भोग लगने के बाद भगवान सोने के लिए जाते हैं।

इसके लिए पलंग लगाया जाता है। गद्दा डाला जाता है। उनके लिए पान, पानी और नारियल रखा जाता है। इस पूरे काम के लिए 119 लोग लगते हैं।

जगन्नाथ भगवान की रसोई, दुनिया की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है। करीब 1500 लोग मिलकर यहां प्रसाद तैयार करते हैं।

जगन्नाथ भगवान की रसोई, दुनिया की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है। करीब 1500 लोग मिलकर यहां प्रसाद तैयार करते हैं।

गर्भगृह के दाहिने हाथ की तरफ आनंद बाजार है। मिट्टी की हांडियों में दाल-भात रखे हैं। हर पांच कदम पर धोती पहने लोग दाल-भात बेच रहे हैं। दाल-भात यहां का प्रसाद है। किसी को होटल में खाना ले जाना हो, घर ले जाना हो या यहां बैठकर खाना हो, हर तरह की व्यवस्था है।

एक आदमी को खाना हो तो 100 रुपए का प्रसाद आता है। इसमें दाल, भात, सब्जी और खीर होती है। एक हांडी भर के खाना ले जाना हो, तो उसके लिए 300 रुपए देने होते हैं।

मुझे बताया गया कि यहां 56 प्रकार के प्रसाद बनते हैं। इसमें नारियल के लड्डू, मावे के लड्डू, दही चावल, अलग-अलग तरह के पेठा, मालपुआ, दाल-भात, कई प्रकार की सब्जियां, खीर, खिचड़ी जैसी चीजें शामिल होती हैं। प्रसाद बनाने के लिए कुएं के पानी का इस्तेमाल होता है, जिसे सोने के घड़े से निकाला जाता है।

आपको जानकर हैरानी होगी कि ये प्रसाद 742 चूल्हों पर एक साथ बनते हैं। इसके लिए एक के ऊपर एक आठ हांडियां चढाई जाती हैं। सबसे पहले ऊपर वाली हांडी का खाना पकता है, उसे उतारा जाता है, फिर नीचे वाली का पकता है।

इस तरह आठों हांड़ियों से खाना उतारा जाता है। यही प्रक्रिया सभी 742 चूल्हों के लिए अपनाई जाती है। प्रसाद बनाने के लिए करीब 1500 लोग लगते हैं।

मिट्टी की हांडी में बना दाल-चावल ही यहां का प्रसाद है। एक हांडी प्रसाद की कीमत करीब 300 रुपए है।

मिट्टी की हांडी में बना दाल-चावल ही यहां का प्रसाद है। एक हांडी प्रसाद की कीमत करीब 300 रुपए है।

मैंने कहीं पढ़ा था कि इस मंदिर की मूर्तियां बदली भी जाती हैं। मैंने इसके बार में एक पंडित से पूछा तो उन्होंने बताया कि हां मूर्तियां बदली जाती हैं। हिंदू पंचांग के मुताबिक जब कभी साल में दो आषाढ़ लगते हैं, तब भगवान की मूर्ति बदली जाती है। ऐसा 12-15 सालों में एक बार होता है।

उस वक्त पूरे शहर की बिजली काट दी जाती है। अंधेरा कर दिया जाता है। मंदिर के बाहर कड़ा पहरा होता है, ताकि कोई बाहर से अंदर नहीं आ सके।

जिस पुजारी की जिम्मेदारी होती है मूर्ति बदलने की, उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है। ताकि वे मूर्ति के ऊपर के ब्रह्म पदार्थ को नहीं देख सकें। ये ब्रह्म पदार्थ क्या है, किसी को नहीं पता। नई मूर्ति उसके ऊपर ही रख दी जाती है।’

मंदिर के पास ही थोड़ी दूरी पर गजपति यानी पुरी के राज घराने का महल है। हर साल इसी महल के सामने रथ यात्रा के लिए रथ तैयार किया जाता है।

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