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सुआ नृत्य की उत्पत्ति छत्तीसगढ़ की आदिवासी जनजातियों से मानी जाती है, जहां यह नृत्य पीढ़ियों से चली आ रही है. ‘सुआ’ शब्द का अर्थ ‘तोता’ है, और इस नृत्य के दौरान तोते की आवाज की नकल करते हुए गीत गाए जाते हैं. आइए जानते हैं इस लोक नृत्य के बारे में विस्तार से…

सुआ नृत्य जिसे तोता नृत्य भी कहा जाता है. छत्तीसगढ़ की आदिवासी संस्कृति का एक प्रमुख लोकनृत्य है. यह नृत्य मुख्यतः आदिवासी महिलाओं द्वारा किया जाता है. दीपावली के समय इसका आयोजन खासतौर पर होता है. यह नृत्य छत्तीसगढ़ के विभिन्न जनजातियों, विशेष रूप से गोंड, बैगा और हल्बा जनजातियों में प्रचलित है, जो इसे अपनी सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मनाते हैं. वर्तमान दौर में यह नृत्य आदिवासी परंपराओं से आगे बढ़कर अब सामान्य संस्कृति का हिस्सा बन चुका है.
सुआ नृत्या का महत्व
सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य की आदिवासी और लोक संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो राज्य के विभिन्न जनजातीय समूहों के पारंपरिक जीवन को प्रदर्शित करता है. यह नृत्य न केवल एक लोकनृत्य है, बल्कि एक सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठान भी है, जो समुदाय की एकता, सामूहिकता और जीवन के विभिन्न पहलुओं को मनाने का एक माध्यम है. इस नृत्य का आयोजन मुख्य रूप से दीपावली के आसपास फसल कटाई के बाद किया जाता है, जब लोग अच्छी फसल के लिए ईश्वर का आभार व्यक्त करते हैं और भविष्य की समृद्धि की कामना करते हैं.
सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ की आदिवासी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो न केवल उनके धार्मिक और सामाजिक जीवन को समृद्ध करता है, बल्कि उनके सांस्कृतिक गर्व और पहचान को भी बनाए रखता है.
सुआ नृत्य के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गांव हो या शहर हर तरफ दीपावली के अवसर पर छोटी बच्चियों से लेकर बड़ी बुजुर्ग महिलाओं तक सुआ नृत्य करते दिखाई दे देती हैं. यह केवल एक सांस्कृतिक आयोजन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आदिवासी समुदाय की धार्मिक और सामाजिक परंपराओं से भी जुड़ा हुआ है. इस नृत्य के माध्यम से महिलाएं अपनी फसल कटाई के बाद की खुशियों को साझा करती हैं और आने वाले समय के लिए समृद्धि की कामना करती हैं. यह नृत्य सामुदायिक एकता को भी बढ़ावा देता है, क्योंकि इसे सामूहिक रूप से आयोजित किया जाता है, जिसमें गांव के सभी लोग हिस्सा लेते हैं.
कैसे करते हैं नृत्य?
सुआ नृत्य की परंपरा और स्वरूप की बात करें तो सुआ नृत्य के दौरान महिलाएं गोल घेरा बनाकर नृत्य करती हैं. इस दौरान सुआ (तोता) की आवाज निकालते हुए महिलाएं गीत भी गाती हैं. इस नृत्य के समय महिलाएं मिट्टी के तोते की मूर्ति को बीच में रखती हैं, जो समृद्धि और खुशहाली का प्रतीक है.
महिलाएं अपने सिर पर घुंघरू बांधती हैं और पारंपरिक वेशभूषा में सजती हैं, जो उनकी संस्कृति की झलक को प्रदर्शित करता है. गीतों के माध्यम से महिलाएं अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं और पारिवारिक जीवन की भावनाओं को व्यक्त करती हैं. सुआ नृत्य की प्रस्तुति के दौरान गाए जाने वाले गीत न केवल मनोरंजन के लिए होते हैं, बल्कि उनमें जीवन की कठिनाइयों, प्रेम, विरह और धार्मिक मान्यताओं की भावनाओं का भी वर्णन किया जाता है. गीतों में प्राकृतिक सौंदर्य, पशु-पक्षियों की विशेषता तथा आदिवासी जीवन की सरलता और संघर्ष का भी उल्लेख होता है.
सुआ नृत्य का आदिवासी समाज और परंपरा में स्थान
आदिवासी समाज में सुआ नृत्य न केवल मनोरंजन का एक साधन है, बल्कि यह उनकी धार्मिक आस्थाओं और परंपराओं का अभिन्न हिस्सा भी है. यह नृत्य प्रकृति के प्रति आदिवासी समुदाय की गहरी आस्था को दर्शाता है, जहां तोता एक महत्वपूर्ण पक्षी के रूप में माना जाता है.
तोते की आवाज को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है और इसलिए इसे नृत्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है. दिवाली के अलावा छत्तीसगढ़ में विभिन्न सांस्कृतिक उत्सवों और कार्यक्रमों में सुआ नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है, जिससे यह राज्य की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा बन गया है. सरकार और विभिन्न सांस्कृतिक संस्थाएं भी इस नृत्य को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न कदम उठा रही हैं.
सुआ नृत्य में नारी सशक्तिकरण की झलक
सुआ नृत्य ने नारी सशक्तिकरण और सामुदायिक जीवन में उनके महत्वपूर्ण स्थान को दर्शाता है. इस नृत्य के माध्यम से महिलाएं न केवल अपनी कला और संस्कृति को आगे बढ़ाती हैं, बल्कि एक दूसरे के साथ अपने जीवन के अनुभवों को भी साझा करती हैं. यह नृत्य उनके लिए एक सामाजिक गतिविधि के साथ-साथ एक सांस्कृतिक अनुष्ठान भी है, जहां वे एक साथ मिलकर आनंद लेती हैं.