JAGRAN DESK

अटल बिहारी वाजपेयी की 25 दिसंबर यानी बुधवार को 100वीं जयंती है. ऐसे में चलिए हम आपको भारत के पूर्व प्रधानमंत्री के राजनीति करने के स्टाइल और शख्सियत के बारे में कुछ अहम बातें बताते हैं. 16 अगस्त 2018 को उनकी दिल्ली में मृत्यु हुई. एक वाक्या ऐसा भी था जब वो अपने कमरे से पूर्व पीएम जवाहर लाल नेहरू की तस्वीर हटाए जाने से नाराज हो गए थे.
अटल बिहारी वाजपेयी अगर आज जीवित होते तो 25 दिसंबर 2024 को उम्र की सेंचुरी पूरी कर रहे होते. भौतिक रूप से वे भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी सहजता, वक्तृत्व शैली और विरोधियों के प्रति भी सम्मान का भाव उन्हें आज भी सभी की स्मृतियों में सजीव बनाए रखता है. सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों के बीच आज जिस तरह की कटुता पसर गई है, ऐसे माहौल में वाजपेयी और भी शिद्दत से याद आते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी, जिन्हें अक्सर अटल जी ही कहा और लिखा जाता रहा है, अपनी साफगोई के लिए जाने जाते थे और किसी की भी आलोचना करने से नहीं चूकते थे, फिर वे पंडित जवाहरलाल नेहरू ही क्यों ना हों. बात 1962 की है, जब वाजपेयी ने भारत-चीन युद्ध के बीच संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग कर दी थी. हालांकि नेहरू ने न केवल उनकी मांग को स्वीकार किया, बल्कि इस मुद्दे पर बहस भी कराई, जबकि वे बचाव की मुद्रा में थे.
लेकिन वाजपेयी द्वारा अपने किसी भी विरोधी की आलोचना या विरोध करने का आधार केवल वैचारिक रहा. मनोभावों में वे कभी किसी के विरोधी नहीं रहे. इसको लेकर कई किस्से और मिसालें हैं. एक किस्सा साल 1977 का है. केंद्र में पहली बार मोरारजी देसाई की अगुवाई में गैर कांग्रेसी सरकार सत्ता में आई. वाजपेयी विदेश मंत्री बने तो कुछ अतिउत्साही बाबुओं ने उनके कमरे में रखी मेज-कुर्सी के पीछे की दीवार पर लगी नेहरू की तस्वीर को हटा दिया. इस पर उन्होंने उस तस्वीर को फिर से लगाने के निर्देश दिए. इससे पहले, 1971 की भारत-पाकिस्तान की जंग के दौरान उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जिस तरह से ‘अभिनव चंडी दुर्गा’ कहकर संबोधित किया था, उस वाकये को आज भी रह-रहकर याद किया जाता है.
श्रेय देने से नहीं चूकते थे
अपने वैचारिक विरोधियों की वाजपेयी खुले दिल से तारीफ ही नहीं करते थे, बल्कि उन्हें उनके अच्छे कार्यों का श्रेय देने से भी नहीं चूकते थे. उनकी ऐसी ही एक सहृदयता का एक उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के निधन के तीन दिन बाद 26 दिसंबर 2004 को सामने आया था. उस समय वाजपेयी लेखकों की एक परिचर्चा में हिस्सा लेने के लिए अपने गृह नगर ग्वालियर में थे. उन्होंने एक बेहद अहम खुलासे के लिए इसी मौके को चुना और भारत के परमाणु कार्यक्रम के ‘असली जनक’ होने का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री राव को दिया. इस अवसर पर थोड़े भावुक हो उठे वाजपेयी ने बताया कि उन्होंने जब 1996 में (13 दिन के लिए) प्रधानमंत्री का पद संभाला था, तभी उन्हें अपने पूर्ववर्ती (राव) का एक पत्र मिला, जिसमें उनसे देश का परमाणु कार्यक्रम जारी रहने देने का आग्रह किया गया था. उन्होंने बताया था, ‘राव ने मुझसे इसे सार्वजनिक न करने को कहा था. लेकिन अब जब कि उनका देहांत हो चुका है और वे इस दुनिया में नहीं हैं तो मैं इस बात को सबके सामने रखना चाहता हूं.’ उन्होंने अपनी खास शैली में बताया था, ‘राव ने मुझसे कहा था कि बम तैयार है. मुझे बस धमाका करना है. और मैंने मौका नहीं गंवाया.’
इसी तरह उन्होंने किडनी की गंभीर बीमारी से उनकी जान बचाने का श्रेय राजीव गांधी को देने में कोई गुरेज नहीं किया था. हालांकि चाहे कथित बोफोर्स घोटाला हो या शाहबानो का मामला अथवा अयोध्या का मसला, ऐसे तमाम मुद्दों पर उन्होंने राजीव गांधी सरकार के साथ जमकर मोर्चा लिया. लेकिन मई 1991 में श्रीपेरंबुदूर में एक बम विस्फोट में राजीव गांधी की हत्या हो गई. इसके बाद वाजपेयी ने जाने-माने पत्रकार करण थापर को दिए एक इंटरव्यू में खुलासा किया था कि कैसे राजीव गांधी ने एक बार उन पर बड़ा एहसान किया था. उन्होंने इंटरव्यू में बताया था कि जिस वक्त राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, उस समय उन्हें किसी तरह यह बात पता चल गई कि वे (वाजपेयी) किडनी की गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं और उसका इलाज विदेश में ही हो सकता है. इस पर राजीव गांधी ने एक दिन उन्हें फोन करके कहा कि वे उन्हें संयुक्त राष्ट्र के लिए भारतीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल कर रहे हैं. वाजपेयी के मुताबिक, ‘उनकी (राजीव) राय थी कि इस अवसर का इस्तेमाल मुझे अपने इलाज के लिए करना चाहिए, जिसकी मुझे उस समय जरूरत थी. मैं न्यूयॉर्क गया और उसी वजह से ही मेरी जान बच पाई और मैं आज जीवित हूं.’
देश का मान रखने का जिम्मा सौंपा था राव ने
वाजपेयी की वृक्तत्व शैली और सामने वालों को कन्विंस करने की उनकी काबिलियत का उनके विरोधी भी कितना लोहा मानते थे, इसका भी एक उदाहरण है. साल 1994 में पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जम्मू-कश्मीर में कथित मानवाधिकार उल्लंघनों का बढ़-चढ़कर रोना रो रहा था. उसी वर्ष जिनेवा में मानवाधिकार आयोग की बैठक आयोजित हुई. इसमें भारत को अपनी साख बचाने के लिए दमदारी से अपना पक्ष रखना जरूरी था. तत्कालीन प्रधानमंत्री राव ने यह दायित्व सौंपा अटलजी को जो उस समय नेता प्रतिपक्ष थे. उन्हीं के नेतृत्व में जिनेवा में भारतीय प्रतिनिधिमंडल भेजा गया और वहां उन्होंने तथ्यों के साथ इस तरह भारत का पक्ष रखा कि पाकिस्तान का पूरा प्रोपैगंडा फेल हो गया. भारत लाैटने के अगले दिन प्रतिनिधिमंडल में शामिल तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री सलमान खुर्शीद जब वाजपेयी के घर पहुंचे तो वाजपेयी ने उन्हें बड़ी गर्मजोशी से गले लगा लिया था. उस समय वाजपेयी और खुर्शीद की वह तस्वीर काफी चर्चा में रही थी. आज की राजनीति में ऐसी मिसालों की तो अब कल्पना भी नहीं की जा सकती.
सोनिया को स्थापित करने में भी निभाई थी भूमिका
सोनिया गांधी को एक कुशल राजनेता के तौर पर स्थापित करने में उनकी भी एक अहम भूमिका मानी जा सकती है. जून 2001 में संयुक्त राष्ट्र एड्स सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल को अमेरिका जाना था. वाजपेयी ने इस प्रतिनिधिमंडल के नेतृत्व के लिए सोनिया गांधी को चुना. यह सोनिया की सियासी राह के लिए मील का एक पत्थर साबित हुआ, क्योंकि नेता प्रतिपक्ष उस समय तक एक राजनेता के तौर पर झिझक और कई तरह की शंकाओं से भरी थीं. बहरहाल, भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व सोनिया गांधी को दिए जाने से भाजपा-एनडीए में नाराजगी भी पैदा हो गई थी और तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री सी.पी. ठाकुर कथित तौर पर खासे नाराज हो गए थे, क्योंकि प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई करने की वे उम्मीद कर रहे थे.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए indiamediatimes.comउत्तरदायी नहीं है.)